Saturday, April 28, 2007

पंथ होने दो अपिरिचत

पंथ होने दो अपिरिचत
प्राण रहने दो अकेला!

और होंगे चरण हारे,
अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे;
दुखव्रती िनर्माण-उन्मद
यह अमरता नापते पद;
बाँध देंगे अंक-संसिृत से ितिमर में स्वर्ण बेला!

दूसरी होगी कहानी
शून्य में िजसके िमटे स्वर, धूिल में खोई िनशानी;
आज िजस पर प्यार िवस्िमत,
मैं लगाती चल रही िनत,
मोितयों की हाट औ, िचनगािरयों का एक मेला!

हास का मधु-दूत भेजो,
रोष की भ्रूभिंगमा पतझार को चाहे सहेजो;
ले िमलेगा उर अचंचल
वेदना-जल स्वप्न-शतदल,
जान लो, वह मिलन-एकाकी िवरह में है दुकेला!

- महादेवी वर्मा

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