दीवारों से भी बितयाने की िजद है
हर अनुभव को गीत बनाने की िजद है
िदये बहुत से गिलयारों में जलते हैं
मगर अिनश्चय के आँगन तो खलते हैं
िकतना कुछ घट जाता मन के भीतर ही
अब सारा कुछ बाहर लाने की िज़द है
जाने क्यों जो जी में आया नहीं िकया
चुप्पा आसमान को हमने समझ िलया
देख चुके हम भाषा का वैभव सारा
बच्चों जैसा अब तुतलाने की िज़द है
कौन बहलता है अब परी कथाओं से
सौ िवचार आते हैं नयी िदशाओं से
खोया रहता एक पिरन्दा सपनों का
उसको अपने पास बुलाने की िज़द है
सरोकार क्या उनसे जो खुद से ऊबे
हमको तो अच्छे लगते हैं मंसूबे
लहरें अपना नाम-पता तक सब खो दें
ऐसा इक तूफान उठाने की िज़द है
- यश मालवीय
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