दर्पन में एक चेहरे की तलाश थी , सुन्दरता आख़िर कहॉ छिपी थी
कि जब भी देखता था दर्पन को , ढूँढने लग जाता उसे
दर्पन छोटा हो या बड़ा , वर्षों का अनुभव था
कि नहीं ढूँढ सका उसे,ना दाएं ना बायें ना ऊपर ना नीचे
सुना था अपने ही अन्दर है तो क्या सिर्फ दृष्टि का फेर है
या इच्छा शक्ति का , जो यत्न कर भी ढूँढ नहीं पाई
एक दिन यूं ही अचानक दर्पन के सामने ,
बंद कर लीं आंखें , सोचकर कि मिलना नहीं अब
पर निस्तब्धता ने दिखाया कुछ , अंधकार में प्रकाश फैला
और कहीँ कोने में पडी सुन्दरता आख़िर चमक गयी
एहसास हुआ उस दिन से , कि झूठ नहीं था वह
दृष्टि का ही फेर था , सुन्दरता का यह खेल था
अब जब भी देखता हूँ दर्पन को , या दर्पन में खुद को
धन्यवाद देता हूँ दोनों को , मिली भगत से ही देख सका मैं अपनी सुन्दरता को ।
Tuesday, October 2, 2007
तलाश जारी है
Posted by
Himanshu
at
11:11 PM
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